poem-sadak-par

यह जीवन उलझन की गठरी
सड़कें जैसी अन्तहीन है
भिन्न धर्म रे पंथ धरा पर
किन्तु सड़क यह पंथहीन है

सड़क मस्त है औरों के हित
सदा भार छाती पर ढो कर
वाहन जन्तु मनुज सब मिल कर
रौंदा करते इसे निरन्तर

रे कहो कहाँ है अनुशासन
जो कुछ है वह बचा सड़क पर
संसद में न विधानसभा में
दफ्तर में न किसी भी दर पर

करती उफ़ न कभी यह फिर भी
सबको निज मंजिल पहुँचाती
जर्जर है फिर भी चुप रह कर
नई कथाएँ नित गढ़ जाती

भिन्न जाति औ सम्प्रदाय का
भेद न अरे सड़क के मन में
पंडित मुल्ला शेख बिरहमन
साधु संत तस्कर रहजन में

गृहपति एक शक्तिशाली जो
शत निर्माण किया जीवन भर
एक भूल के लिए अकारण
आज विवश वह खड़ा सड़क पर

*** डॉ.मधेपुरी की कविता ***