बेटी के बापू से पूछो
क्या-क्या मजबूरी आती है ?
रे दरवाजे से बिन ब्याहे
बारात लौट जब जाती है ?
अपनी बेटी को गले लगा
वह ‘तिलक’ विरोधी व्रत ले ले
खुदकुशी करे मजबूर पिता
या खुद घर छोड़ कहीं चल दे
वर के बापू जो भी रहते
लाखों तक वे गुम ही रहते
स्कार्पियो टीवी टू-इन-वन
चाहिए दुल्हनिया ऑल-इन- वन
कोई आइटम यदि नहीं मिला
दुर्गावतार बन गई सास
मिलती नैहर परिजन को बस
निज बेटी की अधजली लाश
असमर्थ पुलिस हाकिम सारे
कानून कोर्ट में रुके हुए
अपनी बेटी के वर खातिर
उनके भी सिर हैं झुके हुए
सुन लो ! वर वधू के पापा
मन में ये बातें रख लेना
है लेन-देन अपराध ‘तिलक’
से मजा सजा का चख लेना
आज़ादी मिल गई हमें पर
हम अपनी पहचान भुलाये
ऊपर से हम कहें बुरा पर
‘तिलक’ हमें अन्दर से भाये
यह देश कहां जा रहा हाय !
आओ सब मिल संकल्प करें
जर्जर समाज का मधेपुरी
सब मिलकर कायाकल्प करें।
*** डॉ.मधेपुरी की कविता ***