व्यापारी था रघुवर गाँवों
कस्बों में नियमित जाता था
ठेले पर मेले में केले
बेच शाम वह घर आता था
*
जब-जब आता आँधी-पानी
केला ठेला पर सड़ जाता
घाटे रघुवर कैसे पाटे
रे उसका हृदय सिहर जाता
*
रघुवर का दुःख कौन बाँट ले
अब चिन्ता व्यथा घटे कैसे ?
दिन-रात यही रटता रघुवर
पैसे बिन पेट चले कैसे ?
*
था एक फकीर सृजनचेता
औलिया विवेकी कर्मवीर
जिसके घर सदा मुरीदों की
भक्तों की थी अनगिनत भीड़
*
शामिल हो उन्हीं मुरीदों में
रघुवर मन्नत लिए खड़ा था
सुनने को उपदेश पीर का
हिम्मत भीतर लिए अड़ा था
*
सुन कर रघुवर को फकीर ने
कह दिया बन्द व्यापार करो
छोड़ो केले का हेर-फेर
लोहे का कारोबार करो
*
कचिया खुर्पी गैंता कुदाल
उपकरण वहां तैयार हुआ
लोहे का कारोबार बढ़ा
रघुवर का बेड़ा पार हुआ
*
चमका इतना व्यापार बहुत
वह सात समन्दर पार गया
दिन दुनी रात चौगुनी थी
लाखों में कारोबार गया
*
रघुवर ने याद किया उसको
था रोम-रोम रे कर्जदार
चाहा देना वह अतिविशिष्ट
सुन्दर कैंची प्रेमोपहार
*
जिस कैंची से कभी औलिया
अपनी दाढ़ी छाँट सकेगा
बना कारखाने से कैंची
पीर चरण में भेंट करेगा
*
रख दी चरणों में कैंची रे
पर पीर नहीं स्वीकार किया
रघुवर तब उसके पास खड़ा
कर जोड़ नमन शत बार किया
*
यह देख समर्पण रघुवर का
की पीर बहुत खातिरदारी
बोला संयत स्वर में – संस्कृति
कैंची की है विघटनकारी
*
रे सुनो हमारा संस्कार
कब किसे कष्ट में छोड़ा है
पर कैंची करती अलग सदा
क्या कभी किसी को जोड़ा है ?
*
जिसने जोड़ा है समाज को
निजहित की कुर्बानी देकर
याद करो रे हरदम उसको
रहना सीखो तुम मिल-जुल कर
*
कैंची तो नेता के हाथों
की शोभा उद्घाटन वाली
सब क्षेत्रों में इसकी चलती
राजनीति के सौ फनवाली
*
हो नेता का यदि हृदय साफ
बिन कैंची का उद्घाटन हो
खोले फीता कर कमलों से
या दीप जला कर भाषण हो
*
चाहो तुम स्वस्थ समाज अगर
कैंची सा धंधा बंद करो
टुकड़ों को सदा जोड़ कर तुम
भू पर अशेष आनंद भरो
*
पीरों की संस्कृति रही सदा
दो प्राणों को साथ जोड़ना
कला यही बस जोड़ ईंट को
महल बनाना नहीं तोड़ना
*
जन के मन में समासीन वह
सदा जोड़ता जो टुकड़ों को
संस्कार के शीर्ष शिखर पर
पहचानो वैसे मुखड़ों को
*
लौटा दी कैंची फकीर ने
कहा पुनः उसने-जब आना
अपनी फैक्ट्री से बनवा कर
मात्र एक सूई ले आना
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*** डॉ.मधेपुरी की कविता ***