दिन में सूरज की रोशनी
रात में बिजली की चकाचौंध
आखिर अंधेरा
जाए तो जाए किधर –
सिमटकर दुबक गया अंधेरा
आदमी के अन्दर
और
आहिस्ता आहिस्ता
दीमक की तरह
शख्सियत व इंसानियत को
निग़लता जा रहा है
आदमी !
आदमी नहीं
बस ! अब लाश बनता जा रहा है |
*** डॉ.मधेपुरी की कविता ***