पढ़ा-लिखा कोई किशोर

मां-बाप नहीं

घर-बार छोड़

वह पहुँच गया-

अनजान शहर…!

लेकिन, मन में यह भाव लिए-

कुछ काम करूं ! कुछ और पढ़ूँ !!

घूमने लगा वह इधर-उधर…!

देने लगा दस्तक दर-दर

पर मिला न कोई काम उसे

फुटपाथों पर सो जाता था

पेट नहीं वह भर पाता था…!

एक दिन होटल के पास गया

जूठी थाली को चाट गया-

मालिक बोला- रे सुनो इधर !

बर्तन धो टेबुल साफ करो-

वह लगा जतन से सब करने…

इस बीच आ गया- एक ग्राहक

अंतर्मन को गुननेवाला

रे दीनों को सुननेवाला

हँसकर उसने पूछा किशोर से

बाबू ! क्या है नाम तुम्हारा बोलो तो……?

लेकिन वह मौन तपस्वी सा….

अन्तर्मन में कुछ सोचने लगा

क्या दूँ जवाब- सर नोचने लगा…!

इसमें क्षण दो क्षण बीता

फिर आंखे मूँद कहा –

कुत्ता…! कुत्ता….!! कुत्ता…..!!!

*** डॉ.मधेपुरी की कविता ***